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prasangvash- gurupurnima

प्रसंगवश- गुरुपूर्णिमा

     “गुरू: ब्रह्मा गुरू: विष्णु गुरू: देवो महेश्वरा” गुरु की महिमा हमारे पुराणों में कुछ इसी प्रकार व्यक्त की गई है, समय बदलता गया, गुरु के मायने भी बदलते गए, आधुनिक युग में गुरु हमारे स्कूल के टीचर होते हैं, और  सबसे कम सम्मान, परिश्रमिक पाने वाला, वह शिक्षक उस समय अपने को सबसे धनी समझता था, जब उसका कोई शिष्य जो अपनी कामयाबी के शिखर पर होता था, और अपने गुरु को देखते ही उनके चरण छूता था, कभी न कभी हम सब ने भी महसूस किया होगा, वही उनका धन, ज़िंदगी की पूंजी होती थी । जाने कब जाने-अनजाने यह रिश्ता व्यवसाय में बदल गया और शिक्षक शिष्य का रिश्ता टीचर और स्टूडेंट में बादल गया, आज शिक्षक और विद्यार्थी का सिर्फ व्यावसायिक नाता रह गया है, जो कभी उनका भबिष्य हुआ करता था।

      पहले समय में शिक्षक का अपने विद्यार्थी पर उतना या उससे भी ज्यादा अधिकार होता था, जो उनके अपने बच्चों पर होता था, उनको परिवार, समाज भी पूरा अधिकार देते थे और ऐसे वातावरण में शिक्षक ही बच्चों के भविष्य निर्माता होते थे । इन छ्द्म मनवतावादियों ने हस्तक्षेप करके शिक्षक को अपने सपने से अलग कर दिया और वे बच्चों से सिर्फ प्रास्पेक्टस तक सीमित हो गए और दिल कि जगह दिमाग से बच्चों को पढ़ाने लगे, वहीं से शिक्षा किताबों तक सीमित हो गई। पहले हर दिन एक पीरिएड़ और हर शनिवार का  पूरा दिन  नैतिक शिक्षा का होता था, जिसमें बच्चों को सिलेबस से इतर हमारे देश कि शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य से जोड़ा जाता था, विद्यालय में बच्चों को एक दूसरे से प्रेम भाव, सम्मान,आदर करना सिखाया जाता था, स्कूलों में  भाषण, वाद-विवाद प्रतियोगिता होती थी,जिनमें समय के अनुसार कभी गांघी जयंती,कभी तुलसी जयंती, तो कभी गीता पर श्लोकों की प्रतियोगिता होती थीं,जिससे बच्चे अपने पाठ्यक्रम के साथ साथ भारत की सभ्यता, संस्कृति को भी पढ़ते समझते थे। आज तो 15 अगस्त और 26 जनवरी को भी कहते सुना है आज स्कूल नहीं जाएंगे या मत जा पढ़ाई तो होगी नहीं। शिक्षक स्वयं अपने आप में आदर्श होते थे, तभी तो हर बच्चा शिक्षक बनना चाहता था, समय बदला और आज कोई भी शिक्षक नहीं बनना चाहता या कुछ नहीं बन पाया, तो ही शिक्षक बनता है, इन परिस्थिति में शिक्षा आज सिर्फ व्यवसाय हो गया। बच्चों की शिक्षा में से आदर, सम्मान, समाज सेवा, संस्कार जैसे शब्द हटने से शिक्षक का भी गुरु पद सम्मान प्रायः लुप्त होता जा रहा है, बिना गुरु के विद्यार्थी जीवन बिना पतवार की नाव होता जा रहा है । आज शिक्षक को शिक्षा के अलाबा इतने काम सौंप दिये गए हैं, कि वे  चाह कर भी अपने अध्यन अध्यापन में समय और योगदान नहीं दे पा रहा है जो विचारणीय है।

       आज बच्चों में शिक्षा के साथ जीवन मूल्य, सभ्यता, संस्कृति के विकास के लिए भी सोचना होगा, जब हम सही मायने में शिक्षक बना पाएंगे, तभी तो विश्व गुरु बनने का सपना देखने का हक रखेंगे, इसलिए शिक्षा में  समग्र रूप से हस्तक्षेप खत्म होना चाहिए और शिक्षकों को स्वतंत्र रूप से बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए समय देना चाहिए, जिससे गुरु की कमी बच्चों में महसूस न हो और वे गुरु की तलाश में गलत रास्ते पर न चले जायें क्योकि गुरु की आवश्यकता तो प्रभु से मिलने के लिए भी आवश्यक है। गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लगूँ पाँव, बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताए”।       

राकेश चौबे

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